शनिवार, 17 जुलाई 2010

छूटता किनारा

इन्द्रधनुषी रंगों में ढली वो प्रणय-अभिसार की बातें
मौसम की तरह, जाने अस्तित्व खोते चले गए ------
रिश्तों में छुपी इक लकीर विष घोलती रही चुपके चुपके
हमें पता भी न चला, वो यूँ ही दूर होते चले गये -------
खुद को सहेज पाते के बिखराव ने दायरा बढ़ा लिया
हम फूल ही बिनते रहे, वो राह पे   कांटे  बोते चले गए-
उनकी आँखों में, नई तस्वीरें रोज़ उभरतीं रहीं
हम अपनी असफलताओं को, अश्रुओं  में भिगोते चले गए
दबी दबी मुस्कराहटों के रहस्य गहराते गए हर पल
इधर तमाम उम्र हम यूँ ही ख्वाब संजोते चले गए //
---शांतनु सान्याल

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